फ्रेंड्स, इस पोस्ट में हम आपको भारत में सबसे कम उम्र में फांसी पर चढ़ाया जाने वाला क्रांतिकारी (Youngest Revolutionary Who Was Hanged) के बारे में जानकारी दे रहे हैं. भारत 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों की 200 वर्ष की गुलामी के बाद स्वतंत्र हुआ. भारत को गुलामी की जंजीरों से आज़ाद करने में उन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियो और क्रांतिकारियों का योगदान स्मरणीय है, जिन्होंने देश के खातिर अपने प्राणों की भी परवाह नहीं की और हँसते-हँसते अपने प्राण अर्पण कर दिये. इस तरह वे इतिहास के पन्नों में ही नहीं, बल्कि देशवासियों के हृदय में भी अमर हो गये.
इस लेख में हम आपको जानकारी देने वाले हैं एक ऐसे ही शहीद के बारे में. क्या आप जानते हैं कि सबसे कम उम्र में शहीद होने वाले क्रांतिकारी कौन थे? यदि नहीं, तो इस विषय में संपूर्ण जानकारी आपको इस लेख में प्राप्त होगी. उस क्रांतिकारी के बारे में जानकर आपकी आँखें नम भी होंगी और सीना गर्व से चौड़ा भी होगा. आइये जानते हैं सबसे कम उम्र में फांसी की सजा पाने वाले क्रांतिकारी के बारे में :
Youngest Revolutionary Who Was Hanged
Table of Contents
भारत में सबसे कम उम्र में फांसी की सजा पाने वाला क्रांतिकारी कौन था?
भारत में सबसे कम उम्र में फांसी की सजा पाने वाले क्रांतिकारी खुदीराम बोस थे. 11 अगस्त 1908 को जब उन्हें फांसी पर लटकाया गया, तब उनकी उम्र महज़ 19 वर्ष थी.
खुदीराम बोस की जीवनी
खुदीराम बोस का जन्म और प्रारंभिक जीवन
खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसंबर 1889 को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले के एक गाँव बहुवैनी में हुआ था. उनके पिता का नाम त्रैलोक्यनाथ बोस और माता का नाम लक्ष्मीप्रिया देवी था.
खुदीराम बोस का हृदय बाल्यकाल से ही देशप्रेम की भावना से ओत-प्रोत था. 16 अक्टूबर 1905 को लॉर्ड कर्जन के कार्यकाल में बंगाल का विभाजन (बंग भंग) कर दिया, जिसके विरुद्ध बंगाल में ही नहीं संपूर्ण भारत में असंतोष उमड़ने लगा. उस समय खुदीराम बोस कक्षा नौवीं में पढ़ रहे थे. उन पर देशभक्ति की ऐसी लगन लगी कि वे पढ़ाई छोड़ रिवोल्यूशनरी पार्टी के सदस्य बन जन-आंदोलन का हिस्सा बन गये. उन्हें वंदेमातरम् के पम्पलेट वितरित करने का जिम्मा दिया गया, ताकि अधिक से अधिक लोगों में देशभक्ति की ज्वाला प्रज्ज्वलित कर जन-आंदोलन को और प्रगाढ़ किया जा सके. खुदीराम बोस ने अंग्रेजों की नाक के नीचे यह ज़िम्मेदारी बड़ी कुशलता और निडरता से निभाई.
खुदीराम बोस की पहली गिरफ़्तारी
घटना फरवरी 1906 की है. मिदनापुर जिले में एक औद्योगिक तथा कृषि प्रदर्शनी आयोजित की गई थी, जिसे देखने वहाँ सैकड़ों की तादात में लोगों की भीड़ उमड़ रही थी. बंगाल के एक अन्य क्रांतिकारी सत्येन्द्रनाथ ‘सोनार बांग्ला’ नामक ज्वलंत पत्रक की प्रतियाँ प्रकाशित किया करते थे. खुदीराम बोस ने ‘सोनार बांग्ला’ की प्रतियाँ इस प्रदर्शनी में आए लोगों को वितरित कर रहे थे, तब एक अंग्रेज सिपाही की नज़र उन पर पड़ गई. वह उन्हें पकड़ने के लिए दौड़ा, मगर खुदीराम बोस उसके मुँह पर घूंसा मारकर वहाँ से भाग निकले.
हालांकि खुदीराम बोस अधिक दिनों तक वे पुलिस कि पकड़ से बच न सके और 28 फरवरी 1906 को पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया (इतिहासवेत्ता मालती मलिक के अनुसार). लेकिन कुछ ही दिनों में पुलिस को चकमा देकर खुदीराम बोस जेल से फरार हो गये. उसके बाद दो माह बाद अप्रैल 1906 को पुलिस ने उन्हें फिर गिरफ्तार किया और उन पर राजद्रोह का अभियोग लगाकर मुकदमा चलाया गया. लेकिन गवाह न होने के कारण वे 16 मई 1906 को बरी कर दिए गये.
बंगाल के गवर्नर पर हमला
जेल से रिहा होने के बाद खुदीराम बोस रुके नहीं. वे मिदनापुर के क्रांतिकारी संगठन ‘युगांतर’ से जुड़ चुके थे, जो गुप्त रूप से अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों का संचालन किया करता था. खुदीराम बोस के कंधों पर बंगाल के गवर्नर को खत्म करने का भार सौंपा गया? इस घटना को अंजाम देने के लिए वे नारायण गढ़ रेलवे स्टेशन की ओर रवाना हुए और दिसंबर 1907 को उन्होंने उस विशेष रेलगाड़ी पर हमला किया, जिसमें बंगाल का गवर्नर सफ़र कर रहा था. मगर सौभाग्य से वह बच गया. इसके बाद सन् 1908 में उन्होंने दो अंग्रेज अधिकारियों वाट्सन और पैम्फायल्ट फुलर पर बम फेंका, लेकिन उनका यह वार भी खाली गया और वे दोनों बच गये.
न्यायाधीश किंग्जफोर्ड की हत्या की योजना
इसके बाद ‘युगांतर समिति’ की एक गुप्त सभा में न्यायाधीश किंग्जफोर्ड को जान से मारने का निर्णय लिया गया. वर्ष 1905 के बंगाल विभाजन के समय लोगों पर ढाये ज़ुल्म के खिलाफ़ बदले की आग अब तक क्रांतिकारियों के सीने में धधक रही थी। बंग-भंग के विरुद्ध आंदोलन तेज हो रहा था. बंग-भंग के समय जनआंदोलन को दबाने के लिए कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कोर्ट अलीपुर के चीफ़ मॅजिस्ट्रेट डगलस किंग्जफोर्ड ने क्रांतिकारियों को क्रूरतम सजा दी थी. वह क्रांतिकारियों को छोटी-छोटी बातों पर कठोर सजा देने के लिए जाना जाता था.
क्रांतिकारी संगठन की अनुशीलन समिति ने उसे सबक सिखाने की ठान ली थे. उन्होंने उसे जान से मार देने का फैसला किया और उस काम के लिए खुदीराम और प्रफुल्लकुमार चाकी को चुना गया. अंग्रेजी शासन को क्रांतिकारियों की इस योजना की भनक लग गई और उन्होंने किंग्जफोर्ड को पदोन्नति प्रदान कर मुजफ्फरपुर (बिहार) के कोर्ट में सत्र न्यायाधीश बनाकर भेज दिया. वहाँ उसकी सुरक्षा की कड़ी व्यवस्था की गई.
लेकिन इसके बावजूद क्रांतिकारियों का निश्चय दृढ़ था. खुदीराम बोस और प्रफ्फुल चाकी बम और पुस्तौल से लैस होकर मुज्जफ़रपुर पहुँचे. वहाँ वे दिनेश चंद्र रॉय और हरेन शंकर के नाम से रहने लगे. लगभग तीन सप्ताह तक उन्होंने वहाँ वे किंग्जफोर्ड के बंगले की निगरानी करने की, उसके कार्यालय से निकलने, घर आने-जाने और अन्य गतिविधियों पर नज़र रखी. इस तरह उन्होंने उसकी पूरी दिनचर्या समझ ली.
29 अप्रैल 1908 को इन दोनों ने किंग्जफोर्ड की बग्गी पर बम फेंकने की योजना बनाई. उस दिन वे दोनों स्कूली छात्र की वेषभूषा में यूरोपियन क्लब के बाहर एक पार्क में किंग्जफोर्ड की टाक में बैठ गए, जो वहाँ अपनी पत्नी और एक वकील पिगल केनेडी की पत्नी और बेटी के साथ ब्रिज़ खेलने आया था. रात लगभग साढ़े आठ बजे उन्हें क्लब से एक बग्गी आती दिखाई पड़ी. दोनों बग्गी के पीछे भागे और खुदीराम बोस ने अंधेरे में ही बग्गी पर बम फेंक दिया. वह बम धमाका इतना तीव्र था कि उसकी गूंज तीन किलोमीटर तक सुनी गई. मगर दुर्भाग्य से उस बग्गी में किंग्ज़फोर्ड नहीं था. उसे क्लब से निकालने में देरी हो गई और उसकी जगह बग्गी पर सवार वकील पिगल केनेडी की पत्नी और बेटी को जान से हाथ धोना पड़ा.
दीराम बोस और प्रफ्फुल चाकी वहाँ से भाग निकले, लेकिन अंग्रेज सिपाही उनके पीछे लग चुके थे. दोनों अलग-अलग दिशाओं में भागे थे. खुदीराम बोस मुजफ्फ़रपुर से निकल भागने के लिए जब पूसारोड वैनी स्टेशन पर पहुँचे, तो वहाँ तैनात पुलिस वालों को उन पर शक हो गया और उन्होंने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया. उस समय खुदीराम बोस के पास से 2 रिवाल्वर और 37 कारतूस बरामद हुए.
दूसरी तरफ़ प्रफ्फुल चाकी ने रात वहीं गुजारी और अगले दिन कोलकाता के लिए निकले. लेकिन ट्रेन के जिस कम्पार्टमेंट में वे सफ़र कर रहे थे, उसमें बैठे एक पुलिस वाले को उन पर शक हो गया. मोकामाघाट स्टेशन पर उसने उन्हें पकड़ने की कोशिश की. दोनों तरफ़ से फ़ायरिंग हुई. अंत में जब प्रफ्फुल चाकी के पास एक ही गोली बची, तो उन्होंने ख़ुद को गोली मारकर शहादत दे दी.
खुदीराम बोस पर मुकदमा
गिरफ्तार खुदीराम बोस पर मुकदमा चलाया गया. 9 जून 1908 को उनके केस की सुनवाई हुई और 13 जुलाई 1908 की तिथि मुक़र्रर कर उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई. इस फैसले के विरुद्ध खुदीराम बोस के वकील कालिका दास बोस ने कोलकाता उच्च न्यायालय में अपील की गई, लेकिन कोलकाता उच्च न्यायालय के तत्कालीन न्यायाधीश ब्रास व ऋषि ने उनकी फांसी की सजा बरक़रार रखी, बस फांसी की तारीख बढ़ाकर 11 अगस्त 1908 कर दी.
खुदीराम बोस को फांसी
11 अगस्त 1908 को मुज्जफ़रपुर केंद्रीय कारागार में महज 19 बरस की उम्र में वे हाथ में भगवत गीता लिए ख़ुशी-ख़ुशी फांसी पर चढ़ गये. इस तरह वे देश के लिए मर मिटे और सदा के लिए इतिहास में और देशवासियों के ह्रदय में अमर हो गये. 11 अगस्त 1908 खुदीराम बोस के बलिदान दिवस के रूप में मनाया जाता है.
FAQ (Frequently Askes Questiona)
खुदीराम बोस का जन्म कब हुआ था?
खुदीराम बोस की मृत्यु कैसे हुई?
खुदीराम बोस को फांसी कब दी गई थी?
खुदीराम बोस को कितने वर्ष में फांसी दी गई?
खुदीराम बोस को फांसी की सजा क्यों दी गई थी?
खुदीराम बोस के वकील का नाम क्या था?
खुदीराम बोस के केस में जज कौन थे?
खुदीराम बोस जयंती कब है?
खुदीराम बोस जयंती 3 दिसंबर को है.
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