Biography In Hindi

मशहूर कॉमेडियन टुनटुन उर्फ़ उमादेवी की जीवनी | Tuntun Biography In Hindi

इस लेख में हम बॉलीवुड की मशहूर कॉमेडियन टुनटुन उर्फ़ उमादेवी की जीवनी (Comedian Singer Tuntun Uma Devi Biography In Hindi) शेयर कर रहे हैं. Tuntun Umadevi Life Story & Filmography In Hindi में जानिए बॉलीवुड अदाकारा टुनटुन के जीवन और फ़िल्मी सफ़र के बारे में.

टुनटुन (Tuntun) नाम सुनते ही एक गोल-मटोल काया और हँसता-मुस्कुराता चेहरा आँखों के सामने नाच उठता है. कितने बरस गुजर गए, लेकिन टुनटुन का नाम सुनते ही बरबस होंठों पर एक मुस्कराहट तैर जाती है. टुनटुन को बॉलीवुड की पहली सबसे सफ़ल महिला कॉमेडियन कहा जाये, तो गलत न होगा. उस दौर में अपनी कॉमेडी से उन्होंने जो ख्याति अर्जित की, उतनी ख्याति किसी अन्य महिला कॉमेडियन को हासिल नहीं हुई.

‘टुनटुन’ (Tuntun) नाम इतना मशहूर है कि बहुत कम लोग जानते हैं कि उनका वास्तविक नाम टुनटुन नहीं बल्कि ‘उमा देवी’ (Uma Devi) था. उनकी कॉमेडी पर लोट-पॉट कर हँसने वालों में से बहुतों को शायद पता न हो कि वे गायिका पहले थीं और कॉमेडियन बाद में. बीते दौर का लोकप्रिय गीत ‘अफ़साना लिख रही हूँ’ उनकी ही सुरीली आवाज़ में था.

माँ-बाप के साये से मरहूम और रिश्तेदारों के घर नौकरानी जैसी पली-बढ़ी उमा देवी उर्फ़ टुनटुन (Uma Devi  Aka Tuntun) का गाँव से मुंबई आकर गायिका बनने का सफ़र और फिर गायिका से मशहूर कॉमेडियन बनने का सफ़र बड़ा दिलचस्प है. आइये जानते हैं के टुनटुन के जीवन और फ़िल्मी सफ़र के बारे में :

Tuntun Uma Devi Biography In Hindi

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Tuntun Uma Devi Biography In Hindi

Tuntun Uma Devi Biography In Hindi

११ जुलाई १९२३ को उत्तरप्रदेश के अलीपुर गाँव में जन्मी ‘टुनटुन’ का नाम उनके माता-पिता ने ‘उमादेवी’ रखा था. एक पंजाबी परिवार में जन्मी टुनटुन का पूरा नाम ‘उमादेवी खत्री’ (Uma Devi Khatri) था. माता-पिता की छबि उन्हें कभी याद नहीं रही, क्योंकि होश संभालने के पहले ही वे गुज़र चुके थे.

माता-पिता का साया जब सिर से उठा, उस समय उमादेवी २ या २.५ वर्ष की रही होंगी. उनकी देख-रेख की ज़िम्मेदारी उनसे ९ वर्ष बड़े भाई हरी ने संभाली. लेकिन भाई का साथ भी अधिक न रहा. वे ५-६ वर्ष की रही होंगी कि भाई भी दुनिया छोड़कर चला गया.

उमा देवी अपने चाचा के घर पलने लगी. लेकिन वहाँ उनकी स्थिति नौकरानी सरीखी थी. जब भी किसी रिश्तेदार या परिचित के घर शादी होती, काम करने के लिए टुनटुन को भेज दिया जाता. उमादेवी का जीवन इसी तरह बीत रहा था. समझ बढ़ी, तो पड़ोसियों और गाँववालों से पता चला कि जमीन-जायदाद हड़पने के चक्कर में उनके रिश्तेदारों द्वारा ही उनके माता-पिता और भाई का कत्ल करवा दिया गया था. खैर, उमादेवी के जीवन की गाड़ी आगे बढ़ रही थी.

उस दौर में लड़कियों को अधिक पढ़ाया नहीं जाता था. उस पर उमादेवी गाँव में पल रही थी और माता-पिता का साया सिर पर न होने की स्थिति में कौन उनकी पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान देता. उन्होंने कभी स्कूल का मुँह नहीं देखा. लेकिन रेडियो पर वे अक्सर गाने सुना करती थी. वहीं से उनमें गाने का चस्का लगा. लेकिन गाना गाने में भी वे डरती रहती, क्योंकि घर पर कोई उन्हें गाना गाते हुए सुन लेता, तो ख़ूब मरम्मत करता. इसलिए वे सबसे छुपकर अपने गाने का शौक पूरा किया करती थी और मन ही मन एक कामयाब गायिका बनने का सपना देखा करती थी.

घरेलू काम के सिलसिले में उमादेवी का दिल्ली के दरियागंज इलाके में रहने वाले एक रिश्तेदार के घर अक्सर आना-जाना लगा रहता था. वहीं उनकी मुलाक़ात अख्तर अब्बास क़ाज़ी (Akhtar Abbas Kazi) से हुई, जो दिल्ली में आबकारी विभाग में निरीक्षक (Excise Inspector) थे. काज़ी साहब उमा देवी का सहारा बने. उनके साथ से उमा देवी का मनोबल बढ़ने लगा. वे अपने भविष्य को लेकर सकारात्मक होने लगी. लेकिन भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के पूर्व ही क़ाज़ी साहब लाहौर चले गये.

इधर उमा देवी ने भी गायिका बनने का ख्वाब पूरा करने के लिए मुंबई जाने की योजना बना ली. दिल्ली में जॉब करने वाली उनकी एक सहेली की मुंबई में फ़िल्म इंडस्ट्रीज के कुछ लोगों से पहचान थी. एक बार जब वो गाँव आई, तो उसने उमा देवी को निर्देशक नितिन बोस (Nitin Bose) के सहायक जव्वाद हुसैन का पता दिया. वर्ष १९४६ था और उमादेवी २३ बरस की थी. वे किसी तरह हिम्मत जुटाकर गाँव से भागकर मुंबई आ गई. जव्वाद हुसैन ने उन्हें अपने घर पनाह दी.

मुंबई में उमा देवी की दोस्ती अभिनेता और निर्देशक अरूण आहूजा और उनकी पत्नि गायिका निर्मला देवी से हुई, जो मशहूर अभिनेता गोविंदा (Govinda) के माता-पिता थे. इस दंपत्ति ने उमा देवी का परिचय कई प्रोड्यूसर और डायरेक्टर से करवाया. उस समय तक अख्तर अब्बास काज़ी साहब (Akhtar Abbas Kazi) भी मुंबई आ गए थे. १९४७ में उमा देवी और काज़ी साहब ने शादी कर ली.

उसके बाद उमा देवी काम की तलाश करने लगी. उन्हें कहीं से पता चला कि डायरेक्टर अब्दुल रशीद (Abdul Rashid Kardar) करदार फ़िल्म ‘दर्द’ (Dard) बना रहे हैं. वे उनके स्टूडियो पहुंचकर उनके सामने खड़े हो गई. उन्होंने पहले कभी करदार साहब को नहीं देखा था. बेबाक तो वो बचपन से ही थी, उनसे ही सीधे पूछ बैठी, “करदार साहब कहाँ मिलेंगे? मुझे उनकी फ़िल्म में गाना गाना है.”

शायद उनका ये बेबाक अंदाज़ करदार साहब को पसंद आ गया, इसलिए बिना देर किये उन्होंने संगीतकार नौशाद  (Naushad) के सहायक गुलाम मोहम्मद को बुलाकर उमा देवी का टेस्ट लेने को कह दिया. उस टेस्ट में उमादेवी ने फिल्म ‘जीनत’ में नूरजहाँ द्वारा गाया गीत ‘आँधियाँ गम की यूं चली’ गाया. हालांकि उमा देवी एक प्रशिक्षित गायिका नहीं थी, लेकिन रेडियो पर गाने सुनकर और उन्हें दोहराकर वे अच्छा गाने लगी थी. बरहलाल, उनका गया गाना सबको पसंद आया और वो ५०० रुपये की पगार पर नौकरी पर रख ली गई.

जब उमा देवी की मुलाक़ात नौशाद (Naushad) से हुई, तो उनसे भी बेबकीपूर्ण अंदाज़ में उन्होंने कह दिया कि उन्हें अपनी फ़िल्म में गाना गाने का मौका दें, नहीं तो वे उनके घर के सामने समुद्र में डूबकर अपनी जान दे देंगी. नौशाद साहब भी उनकी बेबाकी पर हैरान थे. खैर, उन्होंने उमा देवी को गाने मौका दिया और ‘दर्द’ फिल्म का गीत ‘अफ़साना लिख रही हूँ’ उनसे गवाया. यह गीत बहुत हिट हुआ और आज तक लोगों की ज़ेहन में बसा हुआ है. उस फ़िल्म के अन्य गीत ‘आज मची है धूम’, ‘ये कौन चला’, ‘बेताब है दिल’ भी लोगों को बहुत पसंद आये.

फिर क्या था? उमा देवी की गायिका के रूप में गाड़ी चल पड़ी. कई फ़िल्मी गीतों को उन्होंने अपनी सुरीली आवाज़ से सजाया. १९४७ में ही बनी फ़िल्म ‘नाटक’ में उन्हें गाने का मौका मिला और उन्होंने गीत ‘दिलवाले जल कर मर ही जाना’ गाया. फिर १९४८ की फ़िल्म ‘अनोखी अदा’ में दो सोलो गीत ‘काहे जिया डोले हो कहा नहीं जाए’, ‘दिल को लगा के हमने कुछ भी न पाया’ और फ़िल्म ‘चांदनी रात’ में शीर्षक गीत ‘चांदनी रात है, हाय क्या बात है’ में भी उन्होंने अपनी आवाज़ दी. उमादेवी को गाने के मौके मिलते रहे और वो गाती रहीं. उन्होंने कई फ़िल्मों में गाने गए. उनके द्वारा गाये गए गीत लगभग ४५ के आस-पास है.

बच्चों के जन्म के साथ उनकी पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ बढ़ रही थी. साथ ही लता मंगेशकर (Lata Mangeshkar), आशा भोंसले (Asha Bhosle) जैसी संगीत की विधिवत् शिक्षाप्राप्त गायिकाओं का भी बॉलीवुड फ़िल्म इंडस्ट्रीज में पदार्पण हो चुका था. उमादेवी ने गायन का प्रशिक्षण नहीं लिया था. इसलिए धीरे-धीरे उनका गायन का काम सिमटता गया और एक दिन वह अपना गायन करियर छोड़कर पूरी तरह अपने परिवार में रम गई.

कई वर्षों तक वे फ़िल्मों से दूर रहीं. पति नौकरी करते थे. उनको मिलने वाली पगार से जीवन गुज़र रहा था. उमादेवी के चार बच्चे थे : दो लड़के और दो लड़कियाँ. परिवार बड़ा था और केवल पति के वेतन से गुजारा मुश्किल हो चला था. ऐसे में उमादेवी ने फिर से फ़िल्मों में काम करने का मन बनाया.

वे अपने गुरू नौशाद साहब से मिली. उमादेवी फिर से फ़िल्मों में गाना चाहती थीं, लेकिन समय आगे निकल चुका था. लता मंगेशकर (Lata Mangeshkar) और आशा भोसले (Asha Bhosle) गायन के शिखर पर थी. स्थिति को देखते हुए नौशाद साहब ने उन्हें कहा, ‘तुम अभिनय में हाथ क्यों नहीं आजमाती?” उमादेवी ने कभी अभिनय में करियर के बारे में सोचा नहीं था. लेकिन परिवार की खातिर उन्हें कुछ काम तो करना ही था. अपने बेबाक अंदाज़ में उन्होंने कह दिया, “मैं एक्टिंग करूंगी, लेकिन दिलीप कुमार के साथ.”

दिलीप कुमार (Dilip Kumar) उस समय के सुपरस्टार थे. इसलिए उमादेवी की बात सुनकर नौशाद साहब हँस पड़े. लेकिन इसे किस्मत ही कहा जाए कि अपने अभिनय करियर की शुरूवात उमादेवी ने दिलीप कुमार के साथ ही की. फिल्म थी – ‘बाबुल’ (Babul), जिसमें हिरोइन थीं – नर्गिस (Nargis).

उमा देवी का वजन तब तक काफ़ी बढ़ चुका था. उनका फ़िल्म में रोल भी हास्यप्रधान था. दिलीप कुमार (Dilip Kumar) से जब उनकी मुलाक़ात हुई, तो उन्होंने ही उनका फ़िल्मी नाम ‘टुनटुन’ (Tuntun) रख दिया. बस फिर क्या था? वो बन गई ‘उमादेवी’ से ‘टुनटुन’. फ़िल्म रिलीज़ हुई और छोटे से रोल में भी उनका अभिनय काफ़ी सराहा गया. उसके बाद आई मशहूर निर्माता-निर्देशक और अभिनेता गुरु दत्त (Guru Dutt) की फ़िल्म ‘मिस्टर एंड मिस ५५’ में उन्होंने अपने अभिनय के वे जौहर दिखाए कि हर कोई उनका कायल हो गया.

फिर उन्हें कई फ़िल्मों के ऑफर मिले और एक महिला कॉमेडियन के रूप में उन्होंने अपनी अलग पहचान बना ली. टुनटुन (Tuntun) की ख्याति इतनी बढ़ गई थी कि फ़िल्मकार उनके लिए अपनी फ़िल्म में विशेष रूप से रोल लिखवाया करते थे और टुनटुन भी हर रोल को अपने शानदार अभिनय से यादगार बना देती थीं. उन्होंने उस दौर के लगभग सभी मशहूर कॉमेडियन्स जैसे भगवान दादा (Bhagwan Dada), जॉनी वॉकर (Johnny Walker), केश्टो मुखर्जी (Keshto Mukherjee), मुकरी (Mukri) आदि के साथ मिलकर कई बेहतरीन परफॉरमेंस दी, जो कभी भूली नहीं जा सकती.

उन्होंने ‘उड़न खटोला’, ‘बाज़’, ‘आरपार’, ‘बेगुनाह’, ‘राजहठ’, ‘कोहिनूर’, “उजाला’, ‘दिल अपना और प्रीत पराई’, ’१२ ओ क्लॉक’, ‘नया अंदाज़’, ‘जाली नोट, ‘एक फूल और चार कांटे’, ‘कभी अंधेरा कभी उजाला’, ‘अक्लमंद’, ‘कश्मीर की कली’, ‘मुज़रिम’,’ दिल और मोहब्बत’, ‘सीआईडी’, ‘एक बार मुस्कुरा दो’, ‘अंदाज़’ जैसी लगभग २०० फ़िल्मों में काम किया.

७० के दशक के बाद उन्होंने फ़िल्मों में काम करना कम कर दिया और अधिकांश समय अपने परिवार के साथ गुजारने लगी. उनकी अंतिम फिल्म १९९० में आई ‘कसम धंधे की’ थी. २४ नवंबर २००३ में उन्होंने इस दुनिया से विदा ली, लेकिन आज भी वे बॉलीवुड की पहली सबसे सफ़ल महिला कॉमेडियन के रूप में याद की जाती हैं.


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