ज्यादा बोलना वाले भिक्षु की कहानी | Jyada Bolne Wale Bhikshu Ki Kahani

ज्यादा बोलना वाले भिक्षु की कहानी | Jyada Bolne Wale Bhikshu Ki Kahani 

Jyada Bolne Wale Bhikshu Ki Kahani 

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Jyada Bolne Wale Bhikshu Ki Kahani 

किसी समय की बात है, एक छोटे से गाँव में एक विख्यात मठ स्थित था। इस मठ में कई भिक्षु निवास करते थे, जिनका जीवन साधना, ध्यान, और मौन में बीतता था। परंतु, इन भिक्षुओं में से एक था भिक्षु धर्मानंद, जो अपनी वाचालता के लिए प्रसिद्ध था। 

धर्मानंद का स्वभाव दूसरों से बहुत अलग था। वह हमेशा बात करता रहता था—कभी अपने साथियों से, कभी मठ के आगंतुकों से, और कभी-कभी तो स्वयं से भी। उसकी वाचालता ऐसी थी कि जब वह बोलने लगता, तो उसे रोकना मुश्किल हो जाता। वह किसी भी विषय पर बोलने की क्षमता रखता था, चाहे वह धर्म हो, दर्शन हो, जीवन की कठिनाइयाँ हो, या फिर मौसम की चर्चा।

धर्मानंद का अधिक बोलना उसके साथी भिक्षुओं के लिए परेशानी का कारण बन गया था। मठ के अन्य भिक्षु ध्यान और मौन में विश्वास रखते थे, और उनका मानना था कि शांति और एकाग्रता के बिना आत्मज्ञान की प्राप्ति असंभव है। इसलिए, वे धर्मानंद की वाचालता से परेशान हो गए थे। उन्होंने कई बार उसे समझाने की कोशिश की कि ध्यान और साधना के लिए मौन आवश्यक है, लेकिन धर्मानंद की आदत में कोई परिवर्तन नहीं आया।

मठ के प्रधान, महाभिक्षु वसुधानंद, एक वृद्ध और अनुभवी साधक थे। उन्होंने भी धर्मानंद को कई बार चेताया था, लेकिन उन्होंने कभी उसे कड़ी सजा नहीं दी थी। वसुधानंद मानते थे कि हर व्यक्ति की अपनी यात्रा होती है, और समय आने पर धर्मानंद भी अपने मौन का महत्व समझ जाएगा। 

एक दिन, मठ में एक अनुभवी और प्रख्यात साधु, महायोगी शांतानंद का आगमन हुआ। वे पूरे क्षेत्र में अपनी साधना और मौन के लिए प्रसिद्ध थे। मठ के सभी भिक्षु उनके आगमन से उत्साहित थे और उनसे कुछ सीखने की अपेक्षा कर रहे थे। महायोगी शांतानंद ने मठ में एक सप्ताह बिताने का निर्णय लिया, और इस दौरान उन्होंने सभी भिक्षुओं को ध्यान और मौन की शिक्षा देने का वचन दिया।

धर्मानंद भी महायोगी शांतानंद के आगमन से अत्यधिक उत्साहित था। उसने सोचा कि महायोगी से उसे कुछ नया सीखने को मिलेगा और वह उनसे अपनी वाचालता के लिए भी प्रशंसा प्राप्त करेगा। लेकिन पहले ही दिन महायोगी शांतानंद ने एक कड़ी शर्त रखी—सप्ताह भर के लिए सभी भिक्षुओं को पूर्ण मौन का पालन करना होगा। कोई भी भिक्षु इस दौरान एक शब्द भी नहीं बोलेगा। यह सुनकर धर्मानंद को बहुत असहजता महसूस हुई, लेकिन उसने सोचा कि यह सिर्फ एक सप्ताह की बात है और वह इसे निभा लेगा।

पहले दिन, सभी भिक्षु ध्यान में लीन थे। धर्मानंद भी मौन रहने की कोशिश कर रहा था, लेकिन उसके मन में विचारों का अंबार लग गया। वह अपने अनुभवों को साझा करने के लिए आतुर हो उठा, लेकिन वह जानता था कि अगर उसने शर्त तोड़ी तो उसे मठ से निष्कासित किया जा सकता है। 

दूसरे दिन, धर्मानंद की बेचैनी और बढ़ गई। उसे महसूस हुआ कि वह अपने विचारों को व्यक्त किए बिना नहीं रह सकता। उसे लगा कि उसके भीतर की ऊर्जा बाहर निकलने को आतुर हो रही है। उसने कोशिश की कि वह ध्यान में लीन हो जाए, लेकिन उसका मन इधर-उधर भटकता रहा। 

तीसरे दिन, धर्मानंद ने महसूस किया कि उसकी वाचालता उसके ध्यान और शांति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। वह अब अपनी स्थिति से परेशान होने लगा। उसे समझ में आया कि मौन न केवल शब्दों का अभाव है, बल्कि यह आत्म-निरीक्षण का एक माध्यम भी है। उसने पहली बार महसूस किया कि उसके अधिक बोलने से उसके भीतर का शोर और अधिक बढ़ गया था, और इस शोर के कारण वह सच्चे ध्यान की अवस्था तक नहीं पहुँच पा रहा था।

चौथे दिन, धर्मानंद ने पूरी तरह से अपने विचारों को नियंत्रित करने की कोशिश की। उसने ध्यान की गहराई में जाने का प्रयास किया, और इस बार उसने अपने भीतर की आवाज़ों को शांत करने में थोड़ी सफलता पाई। उसने महसूस किया कि मौन में एक अलग ही शक्ति होती है, जो उसे भीतर की शांति की ओर ले जा रही थी। 

पाँचवे और छठे दिन, धर्मानंद ने पूर्ण मौन में रहकर ध्यान करने का प्रयास जारी रखा। उसे अब इस मौन से प्रेम होने लगा था। उसे समझ में आया कि मौन के बिना सच्ची साधना असंभव है। 

सातवें दिन, जब महायोगी शांतानंद ने सभी भिक्षुओं से अपना मौन तोड़ने को कहा, तो धर्मानंद ने पहली बार अपने भीतर की शांति को महसूस किया। उसने महसूस किया कि मौन के माध्यम से वह अपने भीतर की शक्ति से जुड़ पाया था। अब उसे समझ में आया कि उसकी वाचालता उसे उस शांति से दूर ले जा रही थी, जो उसे ध्यान और साधना में मिल सकती थी। 

धर्मानंद ने महायोगी शांतानंद के चरणों में सिर झुका दिया और उनसे आशीर्वाद माँगा। उसने महायोगी से क्षमा माँगी कि वह अब तक मौन के महत्व को नहीं समझ पाया था। महायोगी शांतानंद ने मुस्कराते हुए कहा, “धर्मानंद, यह तुम्हारी यात्रा का ही हिस्सा था। अब जब तुमने मौन की शक्ति को पहचान लिया है, तो इसे अपनी साधना का हिस्सा बनाओ।”

धर्मानंद ने उसी दिन से अपने जीवन में मौन को अपनाया। वह अब पहले जैसा वाचाल भिक्षु नहीं रहा। अब वह कम बोलता और अधिक ध्यान करता। उसकी साधना में गहराई आने लगी, और मठ के अन्य भिक्षु भी उसे नए दृष्टिकोण से देखने लगे। 

धर्मानंद का जीवन अब पूरी तरह से बदल चुका था। उसने समझ लिया था कि अधिक बोलने से सच्चा ज्ञान नहीं प्राप्त होता, बल्कि मौन में ही वह शक्ति है जो हमें आत्मज्ञान की ओर ले जाती है। 

इस प्रकार, एक वाचाल भिक्षु धर्मानंद, जिसने मौन के महत्व को नहीं समझा था, अंततः अपने जीवन में मौन की शक्ति को पहचानकर आत्मज्ञान की ओर अग्रसर हुआ।

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